ऐ जिंदगी तेरा नाम इतिहास की सबसे बड़ी जंग में शामिल क्यों नहीं?
हर वक्त तो लड़ते हैं हम जीने के लिए,
लड़ते हैं कभी छत के लिए, कभी इस तन को ढकने के लिए।
लड़ता है गरीब दो वक्त की रोटी के लिए, और लड़ते हैं हम मजहब के लिए।
खून के प्यासे हो जाते हैं हम शोहरत के लिए।
Poem on Ideology, Social Poem, Political Poem in Hindi

जिंदा रहना भी एक सलीका है, वरना मासूम यहां पीस जाते है।
न कोई तीर - न कोई दुश्मन नजर आता है, 
जब चोट होती है तभी आघात नजर आता है। 
जिंदगी तेरा नाम कहीं जिद्द तो नहीं,
ना जाने किसकी जिद्द के लिए, ना जाने कौन इस दुनिया से चला जाता है ।
जिंदगी तेरा नाम इतिहास की सबसे बड़ी जंग में शामिल क्यों नहीं?
हर वक्त लड़ रहे हैं हम, इसलिए यह ख्याल आता है।

                                                               इस श्रृंखला की पहली कविता - जिंदगी .01

न जाने क्या लिखने को जी चाहता है,
पर कोरे कागजों को भावों से भरने का जी चाहता है।
न जाने कितने दिन गुजरे हैं ये सोचने में,
आखिर मेरा दिल क्या चाहता है?
मन का शून्य में होना भी एक भाव है,
इस जज्बात को जताना चाहता हूँ।
इन कोरे पन्नों को न जाने कब से देखता जा  रहा हूँ,
हर बीते लम्हे के संग इनसे और भी ज्यादा जुड़ता जा रहा हूँ। 
जिंदगी जब इस मोड़ पर आ खड़ी हो,
जब कुछ न सोचना एक सोच बन गई हो।
तो उस वक्त खुद से एक बात कर लो,
क्या हमको खुद की समझ हो चली है?
या सलीका आज में जीने का आ गया है।

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