यह हिन्दी कविता Social Issue पर लिखी गी है, आतंकवाद सिर्फ एक अन्तर्राष्ट्रीय समस्या ही नही है, यह एक सामाजिक समस्या भी है।ऐसा ही दर्द यह कविता भी बया करती है।
सिमट रहा मॉ के आचल में,
कुछ डरा सा इस जन्नत का लाडला।
डर मौत से किसको यहाँ,
डरते है इस बात से, कल होगा क्या यहाँ।

कौन अपना है और कौन पराया,
समझ मैं कैसे बनाऊ।
क्या सच है, क्या झूठ,
ये कैसे खुद को समझाऊ।
बिक रहा है, डर बाजार में क्यो,
कौन कर रहा हे व्यापार इसका।
मेरा मजहब, मेरा देश या मेरा जमीर,
क्या मेरी असली पहचान है।
खो गया है एक धूल में,
खर्च हो रहा है फिजूल में।
एक साया काला आ गया,
आतंक हर घर में छा गया।
बचपन जैसे खो गया,
बुढापा बन गया अभिशाप है।
कौन आया वादियों में,
लेकर यह हथियार है।
बह रहा है खून मेरा,
इस तरफ हो या उस तरफ।
छिन गयी पहचान मेरी,
बन रही शमशान हूँ।
छा गया ये काला साया,
मैं अब भी हैरान हूँ।
आये कोई बनके ज्वाला,
चीर दे अन्धकार को।
लग गया जो आतंकी साया,
उसको दो हिस्सो में बाट दे।
आने लगे फिर रोशनी
प्यार और विश्वास की।
देख लू इन वादियो को फिर से,
जैसा देखा था कभी।