वो दिन कितने हसीन थे,
जब दिन खेलने को छोटे होते थे,
और रातें पढ़ने को लम्बी लगती।
वो दिन सच्च में बहुत हसीन थे,
जब कलॉस लम्बी लगती थी,
और इंटरवेल छोटे पड़ जाते थे।
हम कितने खुश थे तब,
जब पन्नी में बंधा टिफिन होता,
और बैग अपना फटा होता।
हम सच्च में कभी बहुत खुश थे,
टेंन्शन का तो पता ना था,
पर होमवर्क पहाड़ सा लगता था।
वो हँसी कितनी सच्ची थी,
दोस्तो से ही लड़ते थे,
फिर संग ही ठहाके लगते थे।
वो भी क्या मस्ती होती थी,
बारिश में बिन छाते के जाते थे,
बस एक ही तो था, जिससे हम सब डरते थे,
पर वो सर कलॉस के बाद सबसे अच्छे लगते थे,
संग उनके मस्ति होती थी, और डंडे भी खाया करते थे।
एक दोस्त सयाना होता था,
जिसकी हर बाते सच्ची लगती थी,
जब भी कोई मसला होता,
ज्ञान वही तो देता था।
सच्च में वो दिन कितने अच्छे थे,
कलॉस में वो भी तो संग में पढ़ती थी,
बातों में वो मेरी-तेरी होती थी,
पर संग सहज ही रहते थे।
वो दिन मुझको याद आते है,
जब हमको जल्दी अठरा का होना था,
हमको भी कॉलेज जाना था.
सच्च में वो दिन कितने अच्छे थे,
जिसको हम बचपन कहते है,
और अब इसकी यादों में खोये रहते है।
Nice..
ReplyDeleteNice..
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