Uttarakhand's Rich Cultural Festivals - उत्तराखण्ड के सांस्कृतिक व पारम्परिक कार्यक्रम
बसंत पंचमी :
उत्तर भारत के लगभग सभी राज्यों मे सरस्वती के लिए विख्यात इस पर्व का उत्तराखण्ड में अलग ही सांस्कृतिक महत्व है। विधिवत् तौर तरीकों से सरस्वती पूजा व बसंत आगमन का स्वागत तो किया ही जाता है, साथ ही साथ आज के दिन ही बच्चों को पहली बार पढाने लिखाने की परम्परा वर्षो पुरानी है। पाटी के ऊपर कुछ पौराणिक मंन्त्र लिखकर इसकी शुरुवात की जाती है। साथ ही आज के ही दिन बच्चे जो तीन वर्ष के हो चुके हैं उनका चूङाक्रम संस्कार (मुन्डन) किया जाता है, ओर इसके बाद उनकी शिक्षा आरंम्भ कर दी जाती है। आज ही के दिन बालिकाओं के पहली बार कान नाक छिदवाने की परंपरा है। ये कुछ विशेष बातें थी इस कार्यक्रम की जो आपको सिर्फ उत्तराखण्ड में ही देखने को मिलेगी।
फूल देही(फूल फूल माई):
चैत्र महीने (मार्च मध्य में) की सक्रान्ति को मनाया जाने वाला ये लोक पर्व अपने आप मे बहुत ही आनोखा व आनन्दायक है। इस वक्त पहाङों में बुरांस, फ्यूली व अनेको प्रजाति के फूल अपनी सुन्दरता बिखेर रहे होते हैं। यह त्यौहार एक तरह से हिन्दू नव वर्ष के स्वागत का भी प्रतिक है, और सर्दियों के जाने के बाद सामान्य मानवी के उल्लास का दिन भी है। बच्चे सुबह उठकर सबसे पहले जंगलो में, खेतो में, टोकरी लेकर फूल बीनने जाते हैं, फिर सभी एक साथ जाकर गाँव के हर एक घर पर फूलो की वर्षा करते हुए कुछ लोक गीतों को गाते है, बदले में हर घर से उपहार स्वरूप कुछ ना कुछ दिया जाता है। पहले समय में जितने भाई-बहिन होते थे उतनी मुठ्ठी चावल देने की प्रथा रही है। इस तरह ये नन्हे बच्चे हर तरफ फूलों की खुशबू के संग खुशीयाँ भी बांट आते हैं। तो कैसा लगा आपको फूल देही का यह पर्व?
![Uttarakhand Festival and Culture, Ful Dehi Phole Dehi Festival, Uttarakhand Tradition](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhoLsoC8Ng3ssqEPd9oggSbpkk5UsBeJivW5k-ryXCSujohTmJW1bUO_GVWmbsikoJ3Ffgr_a-LyODPvR1A3DH3I01pN1S5cj80kLKh2Lmk7gIYzRn9jJuhoM-43H1JmZy_fv9UGe1pYAs/w320-h180/images+%252823%2529.jpeg)
होली :
फाल्गुन के महीने (मार्च में) बसंत ऋतु में मनाया जाने वाले यह पर्व वैसे तो पूरे भारत मे मनाया जाता है, परन्तु उत्तराखण्ड में होली का पर्व आज भी अपनी पुरानी परम्पराओं के अनुसार ही मनाया जाता है। यहाँ होली सात दिन पहले से शुरु होकर होलिका दहन तक चलती है। पहले दिन गाँव के लोग झंडी काटने जाते हैं ( झडे के लिए लम्बी लकङी), जोकी मैलू नाम के पेङ की होती है। झंङी आने के बाद उस कपङे का ध्वज लगाकर पूजा की जाती है। इसके बाद दूसरे दिन से बच्चों की टोली पूरे 6दिन उस झंङो को लेकर आस पास के गाँवों में होली खेलने जाती है, इसमें परम्परागत वाध्य यंत्र ढोल-दमाओ की थाप पर होली के लोक गीत गाते हुए बच्चे भ्रमण करते हैं। इस तरह से सभी गाँवों की होली एक के बाद एक गाँव में आती रहती है, और होली का अद्भुत माहौल रहता है। होलिका दहन के दिन उसी झंडी का दहन किया जाता है व अगले दिन उस राख का तिलक लगा कर होली खेली जाती है। शायद आपमें से बहुत लोगों को यह जानकारी पहली बार मिली होगी, और रोचक भी लगी हो।
बैसाखी (बिखोती के मेले) :
बैसाख महिने (अप्रैल मध्य में) बैसाखी का त्यौहार वैसे तो पंजाब में बहुत धूम-धाम से मनाया जाता है, पर इस दिन का पुराने समय में उत्तराखंण्ड मे एक विषेश महत्व था। कुछ परम्परा अभी भी जीवित है व कुछ नें नया रूप ले लिया है। जैसा की हम जानते है गंगा नदी पहाङों से निकलने वाली अनेकों पवित्र नदियों के मिलने से बनी है। जिसमें दो मुख्य नदि अलकनन्दा व भागीरथी है, परन्तु पहाङों में सभी सहायक नदियों को बहुत पवित्र माना गया है, और बैसाखी के दिन गंगा स्नान का बहुत महत्तव माना जाता है। साथ ही पहले समय में जब बाजारों व सङको आभाव था, तब आज के दिन बङे मेलों का आयोजन होता था, जहाँ हर आवश्यक सामान का क्रय- विक्रय होता था। बहुत सी ऐसी वस्तुएं होती जो आज के दिन लेकर पूरे वर्ष के लिए रख दी जाती थी। खेत जोतने का सामान हो, भौटिया जनजाति द्वारा बनाये गये टोकरी व कंडे या उनके द्वारा लाये गये र्दुलभ मसाले, ये सब आज के दिन ही मिल पाता था। गंगं स्नान तो आज भी पहले की तरह ही होता है, परन्तु मेलों ने अपना रूप बदल लिया है।
हरेला :
नन्दा अष्टमी (पाती)
भाद्रपद महीने (सितम्बर माह) की अष्टमी के दिन उत्तराखण्ड के गढवाल मंडल में नन्दा अष्टमी ( जिसको पाती पर्व भी कहाँ जाता है) मनाया जाता है। यह मान्यता है कि गढवाल के चाँदपुर व श्रीगुरु पट्टी माँ नन्दा देवी का मायका है, इसके बारे में हम आगे विस्तार में बात करेगें जब नन्दा देवी राजजात के बारे में आपको बतायेंगे। नन्दा देवी कि पूजा स्वरूप यह पर्व हर वर्ष मनाया जाता है, इस समय फसलें पकने वाले होती है, उन सभी फसलों से देवी का प्रतिकात्मक स्वरूप बनाया जाता है और देवी मानव स्वरूप में अवतरित हो कर सभी को अपना आर्शीवाद देती है। शायद यह बातें कुछ पाठकों के लिए नयी हो सकती है, परन्तु यह पुराने समय से चली आ रही परम्पराओं का हिस्सा है। फोक वाध्य यंत्रो ढोल, दमाओ, भंकोर के स्वर पर सभी देवताओं की पूजा की जाती है व मायके आयी सभी बेटियों का विशेष सम्मान किया जाता है।
दीपावली ( बग्वाल):
उत्तराखंण्ड में होने वाले मुख्य कार्यक्रम
नन्दा देवी राजजातः
पाडंव नृत्य :
पाडंव नृत्य उत्तराखंण्ड के प्राचीनतम लोक नृत्यों में से एक है, जिसका आयोजन मुख्यतः सर्दियों के समय में अलग- अलग क्षेत्रों में होता रहता है। पांडव नृत्य महाभारत की कथा में धर्म की रक्षा करने वाले पांडवों पर आधारित है, जिसमें सभी पात्र जिनको देव रूप माना जाता है अपने पार्श्वओं पर ढोल दमों की विशेष थाप पर अवतरित होते हैं। आस पास के गाँवों के सभी लोग इस नृत्य को देखने के लिए उपस्थित होते हैं, जिसमे हमें इन सभी पात्रों के दर्शन भी प्राप्त होते हैं, और महाभारत अनेको अध्यायों का नृत्य रूप में अवलोकन भी होता है। आखिरी दिन खीर का भोग लगा कर सभी पांडव अपने अस्त्र फिर से उसी स्थान पर रख देते है, और यह पूजा संम्पन्न हो जाती है।
![Uttarakhand Pandav Nritya, Culture and Tradition Pandav Nritya, Uttarakhand Foke Dance](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhm41_5HemyPqQdXTXdIugdEwKL8ChSV_Za2JGYgNnRiE9-S40kyQtpHVrnOpnE5L685zlC2dJFIhjqUwl2Y1OnibmS5mTFXxKT9rQ-t0oTmSnH2aKj3lsedoS16U0USJ_4j8eN8PDUiaM/w320-h240/images+%252821%2529.jpeg)
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